अधुरा में
अधुरे तुम
इस दुनिया की भीड़ में
ना जाने कहाँ खो गयी तुम
अब नज़र तुम्हे देख भी नहीं पाती
तुम्हारी याद भी इस रूह से नहीं जाती
अगर तुम होती साथ
तो मेरी दास्ताँ –ए- मोहब्बत
अधूरी ना रह जाती !
यूँ तो रात भी नहीं होती अधूरी
क्यूंकि चाँद और सितारे भी समझते है उसकी मजबूरी
आज में जिंदा हूँ
और मरने की कोई उम्मीद भी नहीं
क्यूंकि मुझे मालूम है
उसकी साँसों में रहता हूँ में कहीं
अपनी अधूरी दास्ताँ को
पूरा करने के लिए ही तो में जिंदा हूँ
इस ज़िन्दगी को वो जिए खुशी से
यही रोज़ दुआ में करता हूँ !
आगे चलूँगा , आगे बढूँगा
और चूमुंगा आसमां
औरो का मुझे पता नहीं
मगर में करूंगा ऐसे पूरी
अपनी अधूरी दास्ताँ …
~मिथिलेश झा
P.S- Thank You Saru for giving me permission to use your title of the poem.:)