शाम ढलने पर ,
अँधेरा तो आता है ,
लेकिन उस अँधेरे को चीरकर,
एक चाँद नज़र आता है !
कभी आधा, कभी अधुरा ,
आरजू भी जोरो से लहरो की तरह ,
उठती है ,
जब ये नज़र आता है पूरा !.
तुम्हे देखकर अक्सर ,
में सोचता हूँ ,
तुम भी हो शायद,... मेरे मन की तरह ,
हर घडी , हर वक़्त,
ये बदलता रहता है ,
हर वक़्त एक नयी खोज में ये रहता है !
तुम्हारा क्या, तुम तौ ठीक हो , क्यूंकि सितारे भी तुम्हारे साथ
लेकिन मेरे इस मन का क्या ,
जो रहता है हरपल उदास …
~मिथिलेश~
First para marks the entry for the moon. Marvellous described.
ReplyDeleteSecond para, analogy to the moon, and that is a winner! Strangely, the moon how much ever alone it looks in the sky, it is never alone is it!
Ya you are right moon is never alone. Thank you Jenny for liking this poem:)
DeleteAt times moon makes me sad, this poem has a close resemblance to what I think at times...
ReplyDeleteNicely written!
Thanks Saru for liking it:)
Delete"तुम्हारा क्या, तुम तौ ठीक हो , क्यूंकि सितारे भी तुम्हारे साथ"........ Waah, kyaa baat hai Mithilash bhai....:)
ReplyDeleteSukriya Irfanuddin bhai:)
DeleteHey Mithlash,
ReplyDeleteThe new look is really refreshing.:)
Thanks Saru:)
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